बिहार के देदीप्यमान नक्षत्र पुरुष : डॉ० जगन्नाथ मिश्र
डा. कलानाथ मिश्र
प्रोफेसर स्नातकोत्त हिन्दी विभाग
ए.एन.काॅलेज, पटना
संपादक: साहित्य यात्रा
बिहार के सार्वजनिक जीवन को दीर्घकाल तक अपने प्रखर, चुंबकीय एवं सौम्य व्यक्तित्व से प्रभावित करते रहने वाले विलक्षण व्यक्तित्व यशः शेष डाॅ. जगन्नाथ मिश्र, विगत 19 अगस्त 2019 को मिथिला, मैथिल एवं बिहार के समस्त राजनीतिक, बौद्धिक, सांस्कृतिक क्षितिज में एक महान शून्य छोड़कर अपने स्थूल शरीर को त्याग परलोक सिधारि गये। वैसे तो गीता में कहा गया है कि-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।
तथापि आत्मीय जन की सदेह उपस्थिति नहीं रहले से जो एक महाशूण्य और खालीपन की अनुभूति होती है वह रह-रह कर अंतर्मन में एक टीस तो देती ही रहती है। उनकी अनुपस्थिति स्नेही मन को विकल करता रहता है।
‘डॉक्टर साहब’ के स्नेह संबोधन के पर्याय बन चुके आदरणीय डॉक्टर जगन्नाथ मिश्र के महाप्रयाण से संपूर्ण बिहार स्तब्ध रह गया। व्यक्ति जब सदेह नही रह जाते है तब उनके प्रति आम जनों की प्रतिक्रिया, उनकी दुःख कातरता, शोकाकुल मन की विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्ति ही यह सिद्ध करता है कि लोक-हृदय में वे कितने अंतर्मन तक समाए हुए थे। उनके दर्शन के लिए उमरे जन सैलाब उनके व्यक्तित्व एवं स्नेह पूर्ण उपस्थिति का प्रमाण प्रस्तुत कर गया। राजनीतिक, सामाजिक जीवन में दीर्घकाल तक बिना किसी पद, उत्कर्ष पर नही रहने के बाद भी, जीवन में विभिन्न प्रकार के झंझावातों से संघर्षरत रहते हुए भी लोक जीवन में उनका एक विशिष्ट प्रभाव सदैव बना रहा। यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी। डॉ. जगन्नाथ मिश्र के व्यक्तित्व के कई अयाम थे बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि उनके व्यक्तित्वक का अनेक स्तर था। सभी को एक संक्षिप्त आलेख में समेट पाना कठिन तो है ही न्याय संगत भी नहीं हो सकता। विशेष रूप से मेरे लिए तो और नहीं, क्योंकि उनके साथ जिस आत्मीय स्तर पर मेरा जुड़ाव था वह उनपर लिखने हेतु कलम उठाते ही मुझे भावुक कर देता है, तथापि एक संक्षिप्त प्रयास कर रहा हूँ।
श्रद्धेय डॉ जगन्नाथ मिश्र एक दृष्टि संपन्न राष्ट्रीय राजनेता थे। देश एवं प्रांत की राजनीतिक गगनांगन में वे एक देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति भास्वर थे। वे एक गंभीर चिंतक एवं सुधी विचारक थे। वैसे तो विद्यार्थी जीवन से ही वे राजनीति में सक्रीय हो गए थे किन्तु 1968 ई. में सक्रिय रूप मंे उनके राजनीतिक जीवन का आरंभ हुआ जब वे पहली बार मुझप्फरपुर चंपारण क्षेत्र से बिहार विधान परिषद् के सदस्य चुने गये। उसके बाद 1972, 1977, 1980, 1985 और 1990 में निरंतर झंझारपुर विधान सभा क्षेत्र से विधाना सभा के सदस्य निर्वाचित होते रहे। 1972 में पहली बार स्व. केदार पाण्डेय के सरकार में डाॅ. साहब मंत्री बने। उसके बाद अब्दुल गफूर के मंत्रिमंडल में भी मंत्री रहे। डाॅ. साहब अखंड बिहार का तीन बार मुख्यमंत्री के रूप में नेतृत्व किया। 8 अप्रैल 1975 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण किया। दूसरी बार 9 जून 1980 से 13 अगस्त 1983 ई. तक मुख्यमंत्री रहे एवं पुनः 6 दिसंबर 1989 को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण किया। बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने अपने विशिष्ट दायित्व का निर्वाह किया। उनकी विशेषता यह थी कि मुख्यमंत्री रहते हुए भी सामन्य जन के साथ भी उनका जुड़ाव बना रहा। सब से सहज भेंट करना और यथा साध्य उनके समस्या का समाधान करना उनकी दिनचर्या में शामिल था। उनके व्यवहार की विशेषता यह थी कि जिनका काम किसी कारण से नहीं भी हो पाता था वह भी डाॅ. साहब के व्यवहार से संतुष्ट ही रहते थे। मुख्यमंत्री के दायित्व से निवृत्त होने के उपरांत 1993 में डाॅ साहब बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता बनने पर भी वे उतने ही तत्परता से अपने दायित्व का निर्वाह करते थे।
वह समय था जब प्रतिपक्ष में रहने के बाद भी सभी पक्षों, दलों के नेताओं एवं कार्यकर्ताओं से डाॅ. साहब का मधुर व्यक्तिगत संबंध रहथा था। दलगत राजनीति से उपर उठ कर वे निहायत ही मानवीय संबंधों का निर्वाह करते थे। यही कारण था कि आम जनता हांे, पार्टी कार्यकर्ता हों अथवा किसी भी दल के नेता हों, सभी को हमने पार्टी लाईन से उपर उठकर उनके साथ राजनीतिक, सामाजिक, व्यक्तिगत और पारिवारिक संबंधों का निर्वाह करते थे। सभी पीढी के नेता के मन में डाॅ. साहेब के लिए एक विशेष स्नेह एवं सम्मान का भाव रहता था। डाॅ. साहब 1988 से 1994 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। केन्द्र में डाॅ. सहैब की उपस्थिति से जैसे बिहार की जनता का दिल्ली में अपना घर बस गया हो। किसी भी काम से लोग बस जरूरत का कुछ सामान लेकर दिल्ली पहुँच जाते थे। चाहे व्यक्तिगत काम हो, राजनीतिक महत्वाकांक्षा हो अथवा परिवार कि किसी को दिल्ली में इलाज कराना हो। मिश्र जी भी यथा साध्य उनकी आशाओं आकांक्षाओं की रक्षा करते थे।
1995 में स्वर्गीय पी.वी. नरसिम्हाराव के नेतृत्व में डाॅ. साहब केंद्रीय मंत्री बने। ग्रमीण एवं कृषि विभाग के मंत्री के रूप में काम करते हुए वे सम्पूर्ण देश के सामाजिक आर्थिक एवं कृषि की समस्याओं से और करीब से परिचित हुए तथा उस दिशा में उन्होंने अपने लेखों, व्याख्यानो के माध्यम से समाधानपरक अपने महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए।
डाॅ. साहेब के व्यक्तित्व की यह एक और विशेषता थी कि प्रांत और देश के विभिन्न शीर्ष पदों पर रहने के उपरांत भी उनके व्यक्तित्व में अहम भाव का लेश मात्र भी नहीं था। वे बिल्कुल सहज, सरल रूप से आम जन से बात करते थे एवं उनकी समस्याओं को सहानुभूति पूर्वक सुनते थे एवं यथासाध्य उसके समाधान का प्रयास करते थे। वस्तुतः डाॅ. साहब के व्यक्तित्व में संवेदना एवं भाव प्रवणता कूट कूट कर भरा था।
चाहे राजनीतिक क्षेत्र हो, शिक्षा का क्षेत्र हो, सामाजिक सुधार व आर्थिक क्षेत्र हो डॉक्टर मिश्र की गरिमा पूर्ण उपस्थिति से सभी प्रभावित रहा। डॉक्टर साहब के स्मरण करते हुए उनके दीर्घकालिक राजनीतिक जीवन और बिहार के लिए उनके विशिष्ट अवदान मानस चित्र पटल पर जैसे साक्षत सामने उपस्थित हो जा रहा है। राजनीति के साथ-साथ डॉक्टर साहब प्रख्यात शिक्षाविद, समाजसेवी, मिथिला के विलक्षण विभूित थे। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका अवदान अमूल्य है। डॉक्टर साहब राजनीति में व्यस्त रहते हुए भी अपने बौद्धिक क्रियाकलाप के प्रति सदैव सजग रहते थे। उनके भीतर का प्राध्यापक सदैव सक्रिय रहा। यही कारण है कि उन्होंने लगभग दो दर्जन पुस्तकों की रचना की। निश्चय ही इसका समारात्मक प्रभाव बिहार के आर्थिक प्रगति एवं सांस्कृतिक उत्थान पर व्यापक रुप में पड़ा। डॉक्टर जगन्नाथ मिश्र का नाम बिहार के एक प्रमुख अर्थशास्त्री के रूप में भी जिया जाता है। एक प्राध्यापक होने के नाते मुझे यह जानकर आश्चर्य होता है कि एक साथ इतने बहुआयामी कार्य वे कैसे संपन्न कर लेते थे और वह भी सिद्धस्थ रूप में। उनके निर्देशन में विभिन्न विषय पर लगभग बीस (20) शोधार्थी पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त किए। सभी का अपना महत्व है।
राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं में उनके महत्वपुर्ण आलेख नियमित पप्रकाशित होता रहता था। विभिन्न संपादित पुस्तकों में भी उनके आलेख संकलित हैं। गरीब, उपेक्षित सब के प्रति उनके मन में विशेष सहानुभूति का भाव रहता था। उनके सहयोग के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे।
यही कारण था कि डाॅ. साहब आचार्य बिनोबा भावे के भूदान यज्ञ से प्रभावित हुए। जीवन के आरंभिक काल में डाॅ. साहब बिनोबा भावे के भूदान यज्ञ में शामिल हो गए। इतना ही नहीं उन दिनों डाॅ. साहब का वेष-भूषा, रहन-सहन सब गाँधी वादी या यूँ कहें कि ‘बिनोबी’ हो गया था। खादी की मोटी धोती, खादी का ही गोल गला का गंजी, आँख पर काले रंग का गोल चश्मा, यही था उनका रूप। वे कंबल पर सोते थे एवं शाकाहारी सादा भोजन करते थे। वे बिनोबा जी के साथ पैदल घूमते थे एवं लोगों को जागरूक करते थे। इसी क्रम में उन्होंने शुरुआती दौड़ में ही संपूर्ण प्रांत का भ्रमण कर लिया था। अपने सम्मलित परिवार से भी उन्होंने एक हजार एकड़ जमीन बिनोवा जी के भूदान अभियान में दान किया था। उनके सत्प्रयासों से वे लगभग तीन लाख लोगों को भूदान से लाभान्वित कराने के कारण बने।
डा. साहब राष्ट्र की सामाजिक आर्थिक उन्नति के जिए एकांत साधक की तरह अहर्णिश काम करते रहे। वे देश में जाति-वर्ग विहीन एवं सद्भावपूर्ण समाज के पक्षधर थे। यदि विचार करें, यही तो ‘राम राज्य’ की परिकल्पना है। एक जानेमाने अर्थशास्त्री के रूप में भी उनकी यह दृढ मान्यता थी कि समाज के वंचितों तक आर्थिक सामाजिक नीति का लाभ पहुँचे। वे मानते थे कि तभी सामाजिक समरसता स्थापित हो सकता है। यही कारण था कि वे श्रमसाध्य काम करते हुए ‘मानवाधिकार संरक्षण प्रतिष्ठान’ तथा ‘बिहार आर्थिक अध्ययन संस्थान’ जैसे ख्यातिलब्ध संस्थाओं की स्थापना की एवं उसके माध्यम से समाज के उपेक्षित वर्ग के दुख दर्द के मूल कारण को समझने की चेष्टा की। इसके साथ ही उन कारणों के निदान के लिए प्रांत एवं केन्द्र के नीति निर्धारकों को निरंतर पत्र लिखकर अथवा समाचार पत्रों में लेख लिखकर, विभिन्न सभाओं मंे वक्तव्य देकर तथा विभिन्न आयोजन, संगोष्ठियों में व्याख्यान देकर जागरूकता उत्पन्न करते रहते थे। इसी क्रम में उन्होंने कई बार विभिन्न मुद्दों को लेकर माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी से भी पत्राचार कर संपर्क साधते रहते थे। डाॅ. जगन्नाथ मिश्र जी की यशः काय को श्रद्धा निवेदित करते हुए माननीय प्रधानमंत्री जी का पत्र डा. मिश्र के अनेक अनुनायियों के लिए संतोष प्रदान करने वला है।
वे अपने जन्मदिन पर विशेष रूप से बिहार आर्थिक अध्ययन संस्थान के कार्यालय में अथवा किसी बड़े सभागार में मानवाधिकार संरक्षण प्रतिष्ठान के तहत सामाजिक आर्थक उन्नति विषयक संगोष्ठी का आयोजन करते थे और संध्याकार पूजा अर्चना करते थे। यह उनके सरल स्वच्छ जीवन शैली का अद्भुत उदाहरण है।
उनके सानिध्य में बौद्धिक विमर्श निरंतर हुआ करता था और विभिन्न मुद्दों पर उनके विचारोत्तेजक मन्तव्य सुनना अत्यंत सुखद एवं संतोषपूर्ण होता था। अनेक व्यक्तियों की जिज्ञासा शांत होती थी।
डाॅ जगन्नाथ मिश्र जी का जन्म बसाउनपट्टी में 24 जून 1937 ईस्वी में हुआ। उनके पिता पंडित रवि नंदन मिश्र प्रख्यात समाजसेवी एवं स्वतंत्रता सेनानी थे। पिता के व्यक्तित्व का प्रभाव डाॅ. साहब के व्यक्तित्व पर पड़ा। डाॅ. साहब अपने पाँच भाइयों में सबसे कनिष्ठ थे। अपने सबसे जेष्ठ भाई यषःशेष पं. ललित नारायण मिश्र जी के व्यक्तित्व का भी प्रभूत प्रभाव जगन्नाम मिश्र पर था। मिथिला के वरद्पुत्र, राष्ट्र के विभूति ललित बाबू मिथिलाँचल के विकासक के लिए विशेष रूप से जाने जाते थे। बिहार के विकास के लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया। इस घटना से डाॅ. साहब भीतर तक हिल गये। मर्मान्तक कष्ट हुआ उन्हेें। उन्होंने अपन ज्येष्ठ भाई स्व. ललित बाबू के जीवन को अपना आदर्श बना लिया। स्वतंत्रता संग्राम में डाॅ. साहब के परिवार के अनेक व्यक्ति सक्रिय थे इस कारण उनदिनों पुलिस दमन के शिकार भी होना पड़ा था। डाॅ साहब का आरंभिक शिक्षा बलुआ बाजार में ही हुआ। काॅलेज की पढाई टी.एन.बी. काॅलेज, भागलपुर से हुआ। वे अत्यंत मेधावी विद्यार्थी थे। बिहार विश्वविद्यालयक लंगट सिंह काॅलेज से उन्होंने अर्थशास्त्र विषय में स्नातकोत्तर किया एवं पब्लिक फाईनेन्स में पी-एच.डी. की उपाधि अर्जित की। जीवन का आरंभ अध्यापक के रूप में किया। और अंत तक उनके व्यक्तित्व में एक प्राध्यापक सक्रिय रहा।
शिक्षा क्षेत्र में उनका योगदान अपूर्व था। वे विकास को सीधा शिक्षा से जोड़ कर देखते थे। उनका माानना था कि शिक्षा जितना गुणवत्तापूर्ण होगा, विकास उतना ही सृदृढ़ एवं समाज के निम्न वर्ग तक पहुचेगा। वे मानते थे कि शिक्षक को समाज में पर्याप्त सम्मान मिलना चाहिए जिससे लोग शिक्षा की ओर प्रेरित होंगे। वे मानते थे कि शिक्षक को बिना पर्याप्त सुविधा दिए बिना शिक्षा का समुचित विकास संभव नहीं हो सकता। इसी विचार से प्रेरित होकर डाॅ. मिश्र बिहार के विष्वविद्यालय शिक्षकों के जिये यू.जी.सी. वेतनमान लागू किया। सरकारी कर्मचारियों को भी उन्होंने केन्द्रीय वेतनमान दिया। आरा, छपरा, दुमका, हजारीबाग में नये विश्वविद्यालयों की स्थापना की।
भाषा के विकास के लिए उन्होंने मैथिली सहित विभिन्न भाषा अकादमियों की स्थापना की।
भारतरत्न स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी डाॅ. सहब के तर्कों से सहमत होकर तथा मैथिली भाषा की अकादमिक एवं श्रेष्ठ साहित्यक संपदा से प्रभावित होकर मैथिली को अष्टम अनुसूची में सम्मलित किया। बिहार की प्रसिद्ध सांस्कृति संस्था चेतना समिति के भवन आज जिस रूप में है उसमे भी डाॅ. सहब का अमूल्य योगदान है।
विभिन्न काॅलेज को अंगीभूत करले का उनके निर्णय से बहुत लोग असहमत थे। मैंने बहुत दिन बाद जब आदरणीय मिश्र जी से यह पूछा कि ‘बहुत से काॅलेज के प्राध्यापक जो मुफस्सिल में हैं वेे काॅलेज नहीं के बराबर जाते हैं और उन्हें भी यू.जी.सी. वेतनमान मिलता है जिसके कारण कुछ लोग अपा पर आरोप लगाते हैं।’ डाॅ साहब सहसा इस प्रश्न से प्रतिक्रित नहीं हुए। बल्कि मुस्कुराकर धैर्य पूर्वक उन्होंने उत्तर देला जे बिना शिक्षा को सम्मान दिए समाज प्रगति नहीं कर सकता। मैने जा वेतनमान दिया अथवा बहुत से काॅलेजों को अंगीभूत किया वह शिक्षा सुधार का पहला स्टेज था। मेरा दूसरा कार्यक्रम था कि हम सब काॅलेजों को आधारभूत संरचना से सुदृढ़ करते और सभी शिक्षकों एवं छात्रों की महाविद्यालय में उपस्थिति सुनिष्चित कराते। जिससे हमारे प्रांत के स्नातक देश में कहीं भी नौकरी पा सकते थे। किन्तु उसी बीच मैं अपदस्त हो गया और अपने इस सपने को साकार नहीं कर सके। अतः आधे काम पर सही समीक्षा नही किया जा सकता। एक दीर्घ साँस लेकर उन्होंने कहा कि काँग्रेस में निरंतरता के साथ मुख्यमंत्रियों को काम करने का अवसर नहीं मिलता था। अंततः काम पर राजनीति हावी हो ही जाता था। जिससे विकास अवरुद्ध होता है और हुआ भी। डाॅ साहब के द्वारा किए गए कार्यों का यदि वर्णन किया जाय तो पूरा किताब ही बन जायगा। इसी लिए उस प्रसंग पत्र कभी अन्यत्र चर्चा किया जा सकता है।
डाॅ. साहब का विवाह मेरे घर सोती सलम्पुर में 22 जून 1959 में हुआ। उस समय वे भागलपुर में पढ़ रहे थे। किन्तु अत्यंत प्रतिभाशाली थे। विवाह कैसे हुआ? क्या सब हुआ उसके विस्तृत उल्लेख का यह उचित अवसर नहीं। हमारी ‘रानी बहिन‘ (स्व. वीणा मिश्र) पटना में हमारा पुश्तैनी घर मछुआटोली डेरा में रहकर स्वर्गीय जयनाथ बाबूक पितृ छाया में पढ़ती थी। पढने में रानी बहिन भी प्रतिभाशलिनी थी। हमें याद है कि फीटींग पर बैठकर वह बाँकीपुर गल्र्स स्कूल जाती थी। आदरणीय ललित बाबू घर पर आए थे और उन्होंने रानी बहिन को देखने के बाद विवाह तय किया था। शादी के बाद मिसरजी और रानी बहिन मुजफ्फरपुर में कलमबाग रोड मे रहने लगे। हमलोग छुिट्टयों में मुजफ्फरपुर जाते थे। डाॅ. साहब क्रमशः अपने कार्य, राजनीति और बाद में प्रांत के विभिन्न जिम्मेवारियों में ऐसे व्यस्त हो गये कि घर परिवार, समाजिकता का सम्पूर्ण दायित्व हमरी बहन (स्व. वीणा मिश्र) की जिम्मेदारी बन गयी। और वह उसका उचित निर्वहन आजन्म करती रही। उसके मन में राजनीति, पद आदि का तनिक भी लालसा नहीं था। इस क्रम डाॅ. साहब सम्पूर्ण रूप से रानीबहन पर निर्भर हो गए। एक आदर्श धर्मपत्नी के रूप में वीणा मिश्र डाॅ. साहेब के सुख सुविधा, स्वास्थ्य सबका ध्यान रखती थी। जब डाॅ. साहब राजनीतिक द्वेष और दाँव पेंच के कारण कोर्ट-कचहरी के चक्कर में पड़े तो वह वीणा मिश्र ही थीं जो उनके व्यथित हृदय को अपने स्नेह संबल एवं धैर्य से सम्हालती रही। वह धर्म परायण थी अतः डाॅ साहब को सत्य के संबल से संघर्ष की प्रेरणा देती रहती थी। उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखती थी। कहा जाता है कि ‘सत्य परेशान हो सकता है किन्तु पराजित नहीं। जीवन में संघर्ष और विषम स्थिति का आना तो ईश्वरीय विधान है। इसी बहाने व्यक्तित्व का परिष्करण और सत्यानुभूति भी होता है। इससे अंतःकरण भी शुद्ध होता है और व्यक्ति के हृदय में दया, करुणा ,विनम्रता और परदुःखकातरता आदि श्रेष्ठ सदगुणों का प्रस्फुटन होता है। अतः विपरीत परिस्थितियों में सहज और भगवदीय विधान के प्रति समर्पित भाव रहना ही श्रेयस्कर है। यहाँ विशेष रूप् से कहना चाहूँगा कि यह सब आदरणीय डाॅसाहब में पूर्व से ही था। अतः उन्होंने विपरीत परिस्थिति में भी अपार धैर्य रखा। उनके घर में सतत् पूजा-पाठ, अनुष्ठान होता ही रहता था। रानी बहिन रोज मंदिर जाती थी। इसके उल्लेख का अभिप्राय यह है कि डाॅ. सहब के घर का वातावरण सात्विक था। वे स्वयं भी सात्विक थे एवं उच्च चारित्रिक दृढ़ता वाले व्यक्ति थे।
किन्तु ‘रानी बहिन‘ के देहावसान के बाद डाॅ. सहब पूर्ण रूपेण टूट गये। अस्वस्थ्य तो पहले से ही थे पत्नी के स्वर्गारोहन के उपरांत उन्होंने अपने जिजीविषा का जैसे त्याग कर दिया था। सभी संतान सब उनका बहुत ध्यान रखते थे इतना ही नहीं उनके पुराने जो सेवकलोग थे सब परिवार के सदस्य की तरह ही हुनकी सेवा करते थे। किन्तु वे भीतर से जीने की इच्छा त्याग दिए थे। अंततः 19 अगस्त के प्रातः काल दिल्ली आवास पर हृदयाघात से उन्होंने एक क्षण में अपने स्थूल शरीर का त्याग कर दिया एवं सम्पूर्ण परिवार, समाज में एक महाषून्य देकर ब्रह्मलीन हो गये। वे एक ऐसा महाशुन्य छोड़ गये हैं जिसकी पूर्ति निकट भविष्य में होना संभव नही लगता। अंत समय में भी उनके चेहरे पर अपार शांति का भाव व्याप्त था। डाॅ. साहैब युगपुरूष थे। जिनके जन्म से समाज उन्नत हुआ। कहा गया है कि –
स जातो येन जातेन याति वंश समुन्नतिम।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते।।
उसी व्यक्ति का जीवन वास्तव में सार्थक होता है जिनके जन्म लेने से कुल समुन्नत होता है। अन्यथा इस परिवर्तनशील संसार में तो बहुत लोग जन्म लेते हैं और सभी का पृत्यु निश्चित है। ऐसे विरले ही प्राणी होते हैं जिनकी वास्तब में मृत्यु नहीं होती वे अपने यशः काय में चिर काल तक जिवित रहते हैं।
पार्थिव शरीर पर भी किसी प्रकार का तनाव नहीं था जैसे, वे पूर्ण संतुष्ट होकर शरीर का त्याग किये हों। गीता में कहा गया है -मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितं चिरं। डाॅ सहब जितने दिन रहे प्रज्वलित होकर रहे। आज भी वे अपने सूक्ष्म शरीर से विद्यमान हैं।
हे मिथिला के वरद्-पुत्र,
हे बिहार के भास्वर भान
लो नमन हमारा हे कीर्ति-शेष
हे जगन्नाथ शत् शत् प्रणाम्।